सांस्कृतिक >> गोमटेश गाथा गोमटेश गाथानीरज जैन
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गोमटेश्वर बाहुबली की विश्ववन्द्य विशाल मूर्ति पर आधारित एक सशक्त कृति।
Gomtesh Gatha - A book based on Gomateshwar Bahubali by Niraj Jain - गोमटेश गाथा - नीरज जैन
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रवणबेलगोल (कर्नाटक) में विन्ध्यगिरि पर स्थित 57 फुट, उत्तुंग, गोमटेश्वर बाहुबली की विश्ववन्द्य विशाल मूर्ति के प्रतिष्ठापना-इतिहास को रूपायित करने वाली एक सशक्त, श्रेष्ठ साहित्यिक कृति है यह ‘गोमटेश गाथा’। श्रवणबेलगोल का, वहाँ के चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि का सम्पूर्ण सांस्कृतिक वैभव कवि-हृदय की सहज आत्मानुभूति के विविध रंगों से रंजित होकर समुज्ज्वल और जीवन्त हो उठा है। चक्रवर्ती भरत और अप्रितम वीर बाहुबली की पौराणिक कथा को इस कृति में जो मनोवैज्ञानिक आधार मिला है, वह निश्चय ही लेखक की साहित्यिक प्रतिभा का एक सुन्दर निदर्शन है।
चिन्तन की अजस्र प्रवहमान धारा से अनुप्राणित पुराण एवं इतिहास के दुर्लभ पक्ष ने प्रसाद-गुणमयी भाषा-शैली के माध्यम से जो सहज अभिव्यक्ति पायी है, निश्चय ही वह एक सहृदय लेखक की सिद्धहस्त लेखनी से ही सम्भव था। उपन्यास के शिल्प में ढली हुई इस कृति का एक-एक अध्याय चिन्तन की गरिमा, कल्पना की परिष्कृति और शैली की मोहकता के कारण अद्भुत बन पड़ा है। मान लें कि यह रचना भी गुल्लिकाय फल का एक लघुपात्र है जिसमें भावना और भक्ति का सागर हिलोरें ले रहा है।
यहाँ सब कुछ विलक्षण, प्रतीयमान और मुग्धकारी है। पाठक ने कहीं एक बार जाने-अनजाने गोता लगाया कि बस पूरी तरह निमज्जित होकर ही तट के छोर पर पहुँचता है। वहाँ से उसके चिन्तन की नयी भूमिका प्रारम्भ हो जाती है, जिस पर विचरण के लिए उसके पग अनायास बढ़ते चले जाते हैं।
प्रस्तुत है इस महान कृति का नया संस्करण, नयी साज-सज्जा के साथ।
चिन्तन की अजस्र प्रवहमान धारा से अनुप्राणित पुराण एवं इतिहास के दुर्लभ पक्ष ने प्रसाद-गुणमयी भाषा-शैली के माध्यम से जो सहज अभिव्यक्ति पायी है, निश्चय ही वह एक सहृदय लेखक की सिद्धहस्त लेखनी से ही सम्भव था। उपन्यास के शिल्प में ढली हुई इस कृति का एक-एक अध्याय चिन्तन की गरिमा, कल्पना की परिष्कृति और शैली की मोहकता के कारण अद्भुत बन पड़ा है। मान लें कि यह रचना भी गुल्लिकाय फल का एक लघुपात्र है जिसमें भावना और भक्ति का सागर हिलोरें ले रहा है।
यहाँ सब कुछ विलक्षण, प्रतीयमान और मुग्धकारी है। पाठक ने कहीं एक बार जाने-अनजाने गोता लगाया कि बस पूरी तरह निमज्जित होकर ही तट के छोर पर पहुँचता है। वहाँ से उसके चिन्तन की नयी भूमिका प्रारम्भ हो जाती है, जिस पर विचरण के लिए उसके पग अनायास बढ़ते चले जाते हैं।
प्रस्तुत है इस महान कृति का नया संस्करण, नयी साज-सज्जा के साथ।
आर्यिका विशुद्धमती माताजी का आशीर्वचन अन्तर्ध्वनि
जिस प्रकार द्रव्य-प्राण और भाव-प्राण के सामंजस्य का नाम जीवन है, उसी प्रकार, द्रव्य और भाव दोनों की सम्यक् अभिव्यंजना का नाम कला है। सत् का संस्पर्श लेकर चलनेवाली कल्पना ही यथार्थ कला होती है। कोरी कल्पना कला नहीं कही जा सकती।
देहष्टि जीर्ण होते हुए भी जैसे वृद्ध पुरुष की चेतना यथार्थ और अपने आप में परिपूर्ण होती है, उसी प्रकार जैसे वाड्मय की पौराणिक कथाएँ पुरातन होकर भी जीवन्त और परिपूर्ण हैं। योगीश्वर गोमटेश बाहुबली की गौरव-गाथा, ऐसी ही एक अति प्राचीन कथा है, जिसकी जीवन्तता आज भी निर्विवाद है।
जिस प्रकार एक चतुर शिल्पकार, पूर्व भवों के संस्कार एवं परम्परा से प्राप्त अनुभवों के आधार पर, अपनी दृढ़, इच्छाशक्ति, अडिग संकल्प, एकान्त सदाचार, मिताहर, निर्लोभ वृत्ति, अहंकार निवृत्ति और मन वचन तथा इन्द्रियों के यथासाध्य संयम की साधना के बल पर, दुर्भेध खिलाखण्डों में भी, अपने साध्य को साकार कर लेता है, उसी प्रकार साहित्यकार भी पूर्ण पुण्य के योग से, दृढ़ इच्छाशक्ति और आन्तरिक श्रद्धा-भक्ति के बल पर पौराणिक कथाओं के शब्द-पात्र में भावाभिव्यंजना भरकर, उन्हें जीवन्त, सदृश, सुग्राह्य और सुश्रुत बना देता है। श्री नीरज जैन साहित्याकाश के एक ऐसे ही आभावान नक्षत्र हैं। उनकी सशक्त लेखनी ने सुललित भाषा, सुन्दर वाक्य-विन्यास, मधुर सम्बोधन एवं अनुपम काव्य सौष्ठव के माध्यम से, दीर्घकाल पूर्व ज्योतिर्मान, भगवान् बाहुबली की पुण्यकथा की शीतल धारा से हृदय-पटल को वैसा ही अभिसिंचित कर दिया है जैसा पोदनपुर के वन-प्रान्त में षट्खण्डचक्रवर्ती भरत द्वारा स्थापित, लता-गुल्मों से आवेष्टित और विषधर समूहों से मण्डित योगचक्रवर्ती बाहुबली की अनुकृति को श्रवणबेलगोल के विन्ध्य शिखर पर सहस्र वर्ष पूर्व सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य के आशीर्वाद से, भक्तिचक्रवर्ती चामुण्जराय की प्रेरणा से, शिल्प-चक्रवर्ती रूपकार ने मूर्तिमान करके, काललदेवी आदि भक्तो के समूह को प्रथम दर्शन के अमृत जल से अभिसिंचित कर दिया था।
शस्य-श्यामला धरा को आप्लावित करनेवाली जल-वाहिनी जैसे गिरिखण्डों से निकलती है, जैसे ही कर्नाटक के श्रवणबेलगोल में स्थित, अपने स्मृति कोश से सुदूर अतीत के वर्तमान सहस्राब्दी महोत्सव पर्यन्त के समस्त घटनाचक्र को सुरक्षित रखनेवाले चन्द्रगिरी के मुख से, श्रद्धालु पथिक के प्रति वात्सल्य रस से ओतप्रोत सम्बोधन कराते हुए, गोमटेश भगवान की उद्भव गाथा और अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी तथा अन्तिम मुकुटबद्ध नरेन्द्र चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र मुनिराज) की पावन गौरव-गाथा रुपी त्रिवेणी को, तपःपूत धवल कीर्तिमान् नेमिचन्द्राचार्य, सम्यक्त्वरत्नाकर चानुण्डराय परिवर एवं महासती अत्तिमब्बे आदि की पुण्य गाथा रूपी उप-धाराओं को सम्मिलित करके, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर सुचारु-रीत्या अतीव रोचक ढंग से लेखक ने प्रवाहित करायी है। आख्यान की यह पुण्य-वाहिनी, धवल यश प्राप्त भगवान् बाहुबली की अद्वितीय मनोहर प्रतिमा सदृश भव्यजन रूपी कृषकों को युग-युग तक, धर्मरूपी उत्तम फल प्रदान करती रहेगी।
इस गोमटेश-गाथा में कहीं अकम्प और निश्चल गोमटेशश्वर की महिमा का अपूर्व दर्शन होता है, कहीं भद्रबाहु स्वामी की परम समाधि रूपी विजयपताका की उपलब्धि का दृश्य दिखाई देता है, कहीं चन्द्रगुप्त को आत्म-द्रव्य की राजधानी में, आत्मगुण रूप असंख्य प्रजा और रत्नत्रय धर्म रूपी अक्षम कोष के उपभोग का आधिपत्य मिलता है, कहीं दीक्षागुरु भद्रबाहु स्वामी की वैयावृत्त का एकाधिकार अनुभव में आता है। कहीं उस लोकोत्तर प्रतिमा के उद्भावन के लिए नेमिचन्द्राचार्य का गहन चिन्तन और निर्देश परामर्श की विलक्षणता अनुभूत्य है, कहीं स्तुति के छन्दों में उनकी भाव-विह्ललता का आस्वादन होता है।
इस गाथा में कहीं उदारमना चामुण्डराय की अपूर्व मातृ-भक्ति, अनुकरणीय दानवृत्ति और अतिशय जिनभक्ति का चित्ताकर्षक दृश्य सामने आ जाता है, कहीं पण्डिताचार्य की कार्यकुशलता एवं राग-विराग के युद्ध में विराग की विजय का सुन्दर स्मरणीय चित्रण है। कहीं तृष्णा नागिन की विषवेदना से सन्तप्त शिल्पकार का मनस्ताप और मातृ वचन के गरुड़मणि द्वारा विष-वमन के उपरान्त उसकी अभूतपूर्व एकाग्र तृप्ति का, सुखानुभूति का, हृदयस्पर्शी चित्रण है, कहीं जिन देवन का अदम्य उत्साह, कार्यक्षमता एवं कर्त्तव्यनिष्ठा का अनुकरणीय कथन है। कहीं काललदेवी की आन्तरित जिन-भक्ति के साथ युक्ति और शक्ति का सहज गठबन्धन दृश्यमान है, कहीं अजितादेवी की गार्हस्थिक निपुणता एवं सासु के प्रति कर्त्तव्यपालन का अनुकरणीय उदाहरण है। कहीं योग्य गृहिणी सरस्वती देवी की प्रबन्ध कुशलता और स्नेहपूर्ण अतिथि सत्कार के साथ उसके श्रेष्ठ मर्यादित कार्य-कलाप मन को मोह लेते हैं, कहीं बालक सौरभ की धार्मिक संस्कारों से युक्त बालचेष्टाएँ मन को लुभाती हैं। कहीं गुल्लिका-अज्जी की लघुकाय गुल्लिका में से अक्षय घट-सी निःसृत दुग्धधारा के द्वारा गोमटेश के प्रथम महामस्तकभिषेक की अनुपम अनुभूतियों का आस्वादनीय अंकन है। इस प्रकार गद्यकाव्य-सा प्रवहमान यह आख्यान, धार्मिक एवं गार्हस्थ जीवन के प्रत्येक पक्ष का परिचायक तथा जीवनोत्थान के सुगम मार्ग का दिग्दर्शक है।
लेखक ने अपनी तन्मयता से इस गोमटेश-गाथा के बहाने काल सम्बन्धी सहस्रों शताब्दियों के अन्तर को वर्तमान के अंचल में अंकित कर दिया है, क्षेत्र सम्बन्धी प्रन्त की दूरी को अपने स्वाध्याय कक्ष में समेट लिया है और विभिन्न पात्रों के मनोजगत् में उदित होनेवाले राग-विराग, तृष्णा और सन्तोष आदि के अन्तर्द्वन्द्वों को पाठक की अनुभूति में समाविष्टि कर दिया है।
गृहस्थावास्था में प्रज्ञावान् अग्रज होने के नाते नीरज जी ने मुझे सदैव अधिक से अधिक देने का प्रयास किया, किन्तु मेरी मति गुल्लिका, गुल्लिका-अज्जी की गुल्लिका सृश्य लघुकाय ही थी, अतः मैं कुछ अधिक नहीं ले सकी, अब उसमें से भला उन्हें क्या, कितना और कैसे दे सकती हूँ ? हाँ ‘गोमटेश-गाथा’ को देखकर मेरी अन्तरात्मा से यह अन्तर्ध्वनि अवश्य निकलती है कि उनकी यह अनुपम कथाकृति’ यशरूपी रथ पर आरूढ़ होकर दिग्दिगन्त में युग-युगान्त तक पर्यटन करती हुई, जन-मन का कालुष्य हरती रहे और वे स्वयं शीघ्रातिगति चारित्र रथारूढ़ होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हों।
इति शुभम् ।
देहष्टि जीर्ण होते हुए भी जैसे वृद्ध पुरुष की चेतना यथार्थ और अपने आप में परिपूर्ण होती है, उसी प्रकार जैसे वाड्मय की पौराणिक कथाएँ पुरातन होकर भी जीवन्त और परिपूर्ण हैं। योगीश्वर गोमटेश बाहुबली की गौरव-गाथा, ऐसी ही एक अति प्राचीन कथा है, जिसकी जीवन्तता आज भी निर्विवाद है।
जिस प्रकार एक चतुर शिल्पकार, पूर्व भवों के संस्कार एवं परम्परा से प्राप्त अनुभवों के आधार पर, अपनी दृढ़, इच्छाशक्ति, अडिग संकल्प, एकान्त सदाचार, मिताहर, निर्लोभ वृत्ति, अहंकार निवृत्ति और मन वचन तथा इन्द्रियों के यथासाध्य संयम की साधना के बल पर, दुर्भेध खिलाखण्डों में भी, अपने साध्य को साकार कर लेता है, उसी प्रकार साहित्यकार भी पूर्ण पुण्य के योग से, दृढ़ इच्छाशक्ति और आन्तरिक श्रद्धा-भक्ति के बल पर पौराणिक कथाओं के शब्द-पात्र में भावाभिव्यंजना भरकर, उन्हें जीवन्त, सदृश, सुग्राह्य और सुश्रुत बना देता है। श्री नीरज जैन साहित्याकाश के एक ऐसे ही आभावान नक्षत्र हैं। उनकी सशक्त लेखनी ने सुललित भाषा, सुन्दर वाक्य-विन्यास, मधुर सम्बोधन एवं अनुपम काव्य सौष्ठव के माध्यम से, दीर्घकाल पूर्व ज्योतिर्मान, भगवान् बाहुबली की पुण्यकथा की शीतल धारा से हृदय-पटल को वैसा ही अभिसिंचित कर दिया है जैसा पोदनपुर के वन-प्रान्त में षट्खण्डचक्रवर्ती भरत द्वारा स्थापित, लता-गुल्मों से आवेष्टित और विषधर समूहों से मण्डित योगचक्रवर्ती बाहुबली की अनुकृति को श्रवणबेलगोल के विन्ध्य शिखर पर सहस्र वर्ष पूर्व सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य के आशीर्वाद से, भक्तिचक्रवर्ती चामुण्जराय की प्रेरणा से, शिल्प-चक्रवर्ती रूपकार ने मूर्तिमान करके, काललदेवी आदि भक्तो के समूह को प्रथम दर्शन के अमृत जल से अभिसिंचित कर दिया था।
शस्य-श्यामला धरा को आप्लावित करनेवाली जल-वाहिनी जैसे गिरिखण्डों से निकलती है, जैसे ही कर्नाटक के श्रवणबेलगोल में स्थित, अपने स्मृति कोश से सुदूर अतीत के वर्तमान सहस्राब्दी महोत्सव पर्यन्त के समस्त घटनाचक्र को सुरक्षित रखनेवाले चन्द्रगिरी के मुख से, श्रद्धालु पथिक के प्रति वात्सल्य रस से ओतप्रोत सम्बोधन कराते हुए, गोमटेश भगवान की उद्भव गाथा और अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी तथा अन्तिम मुकुटबद्ध नरेन्द्र चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र मुनिराज) की पावन गौरव-गाथा रुपी त्रिवेणी को, तपःपूत धवल कीर्तिमान् नेमिचन्द्राचार्य, सम्यक्त्वरत्नाकर चानुण्डराय परिवर एवं महासती अत्तिमब्बे आदि की पुण्य गाथा रूपी उप-धाराओं को सम्मिलित करके, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर सुचारु-रीत्या अतीव रोचक ढंग से लेखक ने प्रवाहित करायी है। आख्यान की यह पुण्य-वाहिनी, धवल यश प्राप्त भगवान् बाहुबली की अद्वितीय मनोहर प्रतिमा सदृश भव्यजन रूपी कृषकों को युग-युग तक, धर्मरूपी उत्तम फल प्रदान करती रहेगी।
इस गोमटेश-गाथा में कहीं अकम्प और निश्चल गोमटेशश्वर की महिमा का अपूर्व दर्शन होता है, कहीं भद्रबाहु स्वामी की परम समाधि रूपी विजयपताका की उपलब्धि का दृश्य दिखाई देता है, कहीं चन्द्रगुप्त को आत्म-द्रव्य की राजधानी में, आत्मगुण रूप असंख्य प्रजा और रत्नत्रय धर्म रूपी अक्षम कोष के उपभोग का आधिपत्य मिलता है, कहीं दीक्षागुरु भद्रबाहु स्वामी की वैयावृत्त का एकाधिकार अनुभव में आता है। कहीं उस लोकोत्तर प्रतिमा के उद्भावन के लिए नेमिचन्द्राचार्य का गहन चिन्तन और निर्देश परामर्श की विलक्षणता अनुभूत्य है, कहीं स्तुति के छन्दों में उनकी भाव-विह्ललता का आस्वादन होता है।
इस गाथा में कहीं उदारमना चामुण्डराय की अपूर्व मातृ-भक्ति, अनुकरणीय दानवृत्ति और अतिशय जिनभक्ति का चित्ताकर्षक दृश्य सामने आ जाता है, कहीं पण्डिताचार्य की कार्यकुशलता एवं राग-विराग के युद्ध में विराग की विजय का सुन्दर स्मरणीय चित्रण है। कहीं तृष्णा नागिन की विषवेदना से सन्तप्त शिल्पकार का मनस्ताप और मातृ वचन के गरुड़मणि द्वारा विष-वमन के उपरान्त उसकी अभूतपूर्व एकाग्र तृप्ति का, सुखानुभूति का, हृदयस्पर्शी चित्रण है, कहीं जिन देवन का अदम्य उत्साह, कार्यक्षमता एवं कर्त्तव्यनिष्ठा का अनुकरणीय कथन है। कहीं काललदेवी की आन्तरित जिन-भक्ति के साथ युक्ति और शक्ति का सहज गठबन्धन दृश्यमान है, कहीं अजितादेवी की गार्हस्थिक निपुणता एवं सासु के प्रति कर्त्तव्यपालन का अनुकरणीय उदाहरण है। कहीं योग्य गृहिणी सरस्वती देवी की प्रबन्ध कुशलता और स्नेहपूर्ण अतिथि सत्कार के साथ उसके श्रेष्ठ मर्यादित कार्य-कलाप मन को मोह लेते हैं, कहीं बालक सौरभ की धार्मिक संस्कारों से युक्त बालचेष्टाएँ मन को लुभाती हैं। कहीं गुल्लिका-अज्जी की लघुकाय गुल्लिका में से अक्षय घट-सी निःसृत दुग्धधारा के द्वारा गोमटेश के प्रथम महामस्तकभिषेक की अनुपम अनुभूतियों का आस्वादनीय अंकन है। इस प्रकार गद्यकाव्य-सा प्रवहमान यह आख्यान, धार्मिक एवं गार्हस्थ जीवन के प्रत्येक पक्ष का परिचायक तथा जीवनोत्थान के सुगम मार्ग का दिग्दर्शक है।
लेखक ने अपनी तन्मयता से इस गोमटेश-गाथा के बहाने काल सम्बन्धी सहस्रों शताब्दियों के अन्तर को वर्तमान के अंचल में अंकित कर दिया है, क्षेत्र सम्बन्धी प्रन्त की दूरी को अपने स्वाध्याय कक्ष में समेट लिया है और विभिन्न पात्रों के मनोजगत् में उदित होनेवाले राग-विराग, तृष्णा और सन्तोष आदि के अन्तर्द्वन्द्वों को पाठक की अनुभूति में समाविष्टि कर दिया है।
गृहस्थावास्था में प्रज्ञावान् अग्रज होने के नाते नीरज जी ने मुझे सदैव अधिक से अधिक देने का प्रयास किया, किन्तु मेरी मति गुल्लिका, गुल्लिका-अज्जी की गुल्लिका सृश्य लघुकाय ही थी, अतः मैं कुछ अधिक नहीं ले सकी, अब उसमें से भला उन्हें क्या, कितना और कैसे दे सकती हूँ ? हाँ ‘गोमटेश-गाथा’ को देखकर मेरी अन्तरात्मा से यह अन्तर्ध्वनि अवश्य निकलती है कि उनकी यह अनुपम कथाकृति’ यशरूपी रथ पर आरूढ़ होकर दिग्दिगन्त में युग-युगान्त तक पर्यटन करती हुई, जन-मन का कालुष्य हरती रहे और वे स्वयं शीघ्रातिगति चारित्र रथारूढ़ होकर आत्मकल्याण के मार्ग पर अग्रसर हों।
इति शुभम् ।
शरत् पूर्णिमा
23-10-80>
23-10-80>
-आर्यिका विशुद्धमती
आमुख
श्री नीरज जैन की प्रस्तुत कृति को मैंने केवल पढ़ा ही नहीं है, अपितु लेखक के मुख से इसके कई महत्त्वपूर्ण प्रकरण सुने भी हैं। पुस्तक की कथावस्तु पर और इसके संयोजन पर उनसे बराबर चर्चा होती रही है। ‘गोमटेश-गाथा’ को नीरज जी ने इतनी रोचक शैली में संयोजित किया है कि वह तथ्यों को अभिव्यक्त करते हुए एक सहज लोक-कथा बनी रहती है और एक सामान्य पाठक भी उसे अन्त तक पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर सकता।
लेखक से मेरा प्रथम परिचय दो वर्ष पूर्व जब मैं बुन्देलखण्ड के तीर्थों की यात्रा कर रहा था, हुआ। उससे पहले मैं सोचता था कि वे जैन शिल्पकला के विशेषज्ञ हैं और मात्र कला विषयों की ही चर्चा करते हैं। किन्तु इस कृति को पढ़कर अब मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि भगवान् गोमटेश्वर की सहस्राब्दी प्रतिष्ठापना और महामस्तकाभिषेक के अवसर पर जो साहित्य मेरे देखने में आया है, उसमें इस कृति की शीर्षस्थ स्थान है।
पुस्तक के कुछ अंश ऐसे भी हैं, जिनके भीतर के लेखक के जीवन-संघर्ष की झाँकी मिलती है। मैंने उनके ‘ताश के बावन पत्ते’ पुस्तिका भी देखी है, लेखक ने अपने 52 वर्ष के जीवन-संघर्ष का आत्म-निरीक्षण उस कृति के माध्यम से किया है। यह आत्म-निरीक्षण की कला बहुत ही अनूठी एवं मार्मिक मुझे प्रतीत होती है।
‘गोमटेश-गाथा’ के प्रारम्भ के अध्यायों को इस प्रकार नियोजित किया गया है कि श्रवणबेलगोल से सम्बन्धित सारी परिचयात्मक सामग्री बड़ी कुशलता से प्रस्तुत कर दी गई है। विशेषकर ‘देव, शास्त्र, गुरु की पावन त्रिवेणी’ शीर्षक अध्यायों में-वहाँ इस सन्तापहारी परम पावन तीर्थ के धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संस्थापित करनेवाले महापुरुषों की अमर-गाथा को, ज्ञान और श्रद्धा की दीप-ज्योति से उजागर किया गया है।
‘गोमटेश-गाथा’ की एक विशेषता यह है कि नीरज जी ने इतिहास और संस्कृति की विपुल सामग्री के सागर में से मोती चुनकर साहित्य के लिए कण्ठहार तैयार कर दिया है। पुस्तक का प्रत्येक अध्याय जानकारी कोष है, किन्तु कहीं भी इसे बोझ नहीं बनने दिया गया है। प्रसंग के अनुसार पौराणिक गाथा और इतिहास के तथ्यों की विवेचना है। कालचक्र का प्रवर्त्तन, भोगभूमि का वैभव और उसका ह्रास, उसके उपरान्त कर्मभूमि का उद्भव व विकास, श्रुतज्ञान की परम्परा, आचार्य भद्रबाहु और सम्राट् चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक तथ्यों से लेकर सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य तथा भगवान् बाहुबली की मूर्ति के प्रतिष्ठापरक प्रतापी चामुण्डराय के इतिवृत्त तक, जो कुछ जानने योग्य है, सब सार रूप में इस पुस्तक में आ गया है।
विन्ध्यगिरि के शिखर पर प्रतिष्ठित विशाल खड्गासन मूर्ति का पुस्तक में जो अलौकिक दृश्य अंकित किया गया है, उसके अनुरूप भाव और भाषा एक कवि-हृदय ही पा सकता है। इतिहास के तथ्यों को यथासम्भव सुरक्षित रखते हुए, जहाँ भी कथानक के चित्रण ने भावनाओं को प्रेरित किया है, वहाँ नीरज जी की कल्पना मुखर हो गयी है। तथ्यों का सपाट वर्णन इतिहास कर सकता है जहाँ आकृति का ढाँचा खड़ा कर देने से काम चल जाता है, किन्तु साहित्य की रचना तक सम्पूर्ण होती है। जब ढाँचे में प्राणों का स्पन्दन होने लगे। ऐसा स्पन्दन लेखक ने स्वयं तो अनुभव किया ही है, पाठकों तक भी उसे पहुँचाया है।
भगवान बाहुबली की मूर्ति के दर्शनों के लिए पोदनपुर की जिस यात्रा की व्यवस्था चामुण्डराय ने अपनी माता की अभिलाषा पूर्ति के लिए की थी, उस यात्रा का विवरण कहीं भी पोथियों में नहीं मिलता। यात्रियों में माता, काललदेवी, उनके गुरु आचार्य नेमिचन्द्र, चामुण्डराय और चामुण्डराय की पत्नी अजितादेवी की नामावलि सहजता से सोची जा सकती है, किन्तु संघ की यात्रा को सजीव और सम्पूर्ण बनाने के लिए नीरज जी के चामुण्डराय के पुत्र जिनदेवन, पुत्रवधू सरस्वती और पौत्र सौरभ को रूपांकित किया है। एक भरा-पूरा राज-परिवार श्रावकोचित मर्यादाओं के सारे आयोजनों को, धर्म गुरुओं के निर्देशन में, सम्यक्-दर्शन सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की महिमा से मण्डित करता है। नीरज जी की यह कल्पना-दृष्टि, कथा को नया आयाम देती है। साहित्यिक लेखन प्रेरक भी हो, ‘गोमटेश-गाथा’ इसका उदाहरण है।
अन्त में कई अध्यायों में कथा का विस्तार कितना आवश्यक था, इसमें मतभेद हो सकता है, किन्तु लेखक का यह आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है कि जिस विशाल परिवेश में गोमटेश स्वामी की मूर्ति का निर्माण हो रहा है, जहाँ जिनदेवन और सरस्वती अपने-अपने दायित्वों के निर्वाह में तन-मन से लगे हुए हैं, उस परिवेश को जीवन्तता दी जाए। इसके लिए शिल्पी के (जिसे नीरज जी ने अरिष्टनेमि न कहकर केवल रूपकार की संज्ञा दी जाती है) मनोभावों को और उसकी दुविधा को चित्रित करना आवश्यक है। ‘रूपकार’ ने सरस्वती को अपनी दीदी माना है। इस नाते से सौरभ रूपकार को-‘मामा’ के रूप में देखता है। इन मानवीय सम्बन्धों का सृजन एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति में जुटे हुए व्यक्तियों के पारस्परिक स्नेह और उनकी कोमल भावनाओं से जुड़ा हुआ है।
कथानक उठा लेने के बाद उसका यथोचित निर्वाह करना साहित्यकार और उपन्यासकार की अनिवार्यता हो जाती है। इसके अतिरिक्त इन अध्यायों के द्वारा उस सारे कथानक का उद्देश्य उद्घाटित होता है जो भरत-बाहुबली के द्वन्द्व से प्रारम्भ हुआ और रुपकार के लोभी मन तथा चामुण्डराय के तथाकथित अहंकार तक पहुँचा। अपने-अपने विचारों से मुक्त होकर, शान्ति और आध्यात्मिक उत्कर्ष तक कैसे पहुँचा जा सकता है, इस मर्म तक पहुँचना और पाठक के लिए वहाँ पहुँचने का मार्ग-निर्देश करना, गोमटेश गाथा का, उसके ज्ञानी और सहृदय लेखक का उद्देश्य रहा है। नीरज जी की इस सफलता पर मेरी बधाई।
गाथा पढ़कर मुझे निश्चय हो गया कि नीरज जी ऐसे साहित्य-स्रष्टा हैं, जिन्हें नयी भाषा-शैली पर सन्तुलित अधिकार प्राप्त है। सच पूछिए, तो ‘गोमटेश-गाथा’ पर मैं बरबस ही विस्मित और मुग्ध हुआ हूँ। मेरा विश्वास है लेखक के इस श्रम का गुल्लिका-अज्जी की साधना और श्रम की तरह सम्मान होगा और इसे व्यापक रूप से पढ़ा जाएगा।
मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि इस गाथा को एक खेले जा सकने वाले नाटक के रूप में तैयार किया जाए, जिसमें लेखक के सशक्त संवादों और सांस्कृतिक आयामों को मानवीय संवेदनाओं के सम्यक् पटल पर कुशलता के साथ प्रस्तुत किया जाए।
यह सुखद संयोग है कि श्री नीरज जी ने भगवान बाहुबली की प्रतिष्ठापना सहस्राब्दी महोत्सव के अवसर पर इस ‘गोमटेश-गाथा’ का सृजन किया है। इस कृति के द्वारा समाज को कितनी ही जानकारी समुपलब्ध हो सकेगी।
लेखक से मेरा प्रथम परिचय दो वर्ष पूर्व जब मैं बुन्देलखण्ड के तीर्थों की यात्रा कर रहा था, हुआ। उससे पहले मैं सोचता था कि वे जैन शिल्पकला के विशेषज्ञ हैं और मात्र कला विषयों की ही चर्चा करते हैं। किन्तु इस कृति को पढ़कर अब मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि भगवान् गोमटेश्वर की सहस्राब्दी प्रतिष्ठापना और महामस्तकाभिषेक के अवसर पर जो साहित्य मेरे देखने में आया है, उसमें इस कृति की शीर्षस्थ स्थान है।
पुस्तक के कुछ अंश ऐसे भी हैं, जिनके भीतर के लेखक के जीवन-संघर्ष की झाँकी मिलती है। मैंने उनके ‘ताश के बावन पत्ते’ पुस्तिका भी देखी है, लेखक ने अपने 52 वर्ष के जीवन-संघर्ष का आत्म-निरीक्षण उस कृति के माध्यम से किया है। यह आत्म-निरीक्षण की कला बहुत ही अनूठी एवं मार्मिक मुझे प्रतीत होती है।
‘गोमटेश-गाथा’ के प्रारम्भ के अध्यायों को इस प्रकार नियोजित किया गया है कि श्रवणबेलगोल से सम्बन्धित सारी परिचयात्मक सामग्री बड़ी कुशलता से प्रस्तुत कर दी गई है। विशेषकर ‘देव, शास्त्र, गुरु की पावन त्रिवेणी’ शीर्षक अध्यायों में-वहाँ इस सन्तापहारी परम पावन तीर्थ के धार्मिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और पुरातात्विक महत्त्व को अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से संस्थापित करनेवाले महापुरुषों की अमर-गाथा को, ज्ञान और श्रद्धा की दीप-ज्योति से उजागर किया गया है।
‘गोमटेश-गाथा’ की एक विशेषता यह है कि नीरज जी ने इतिहास और संस्कृति की विपुल सामग्री के सागर में से मोती चुनकर साहित्य के लिए कण्ठहार तैयार कर दिया है। पुस्तक का प्रत्येक अध्याय जानकारी कोष है, किन्तु कहीं भी इसे बोझ नहीं बनने दिया गया है। प्रसंग के अनुसार पौराणिक गाथा और इतिहास के तथ्यों की विवेचना है। कालचक्र का प्रवर्त्तन, भोगभूमि का वैभव और उसका ह्रास, उसके उपरान्त कर्मभूमि का उद्भव व विकास, श्रुतज्ञान की परम्परा, आचार्य भद्रबाहु और सम्राट् चन्द्रगुप्त के ऐतिहासिक तथ्यों से लेकर सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य तथा भगवान् बाहुबली की मूर्ति के प्रतिष्ठापरक प्रतापी चामुण्डराय के इतिवृत्त तक, जो कुछ जानने योग्य है, सब सार रूप में इस पुस्तक में आ गया है।
विन्ध्यगिरि के शिखर पर प्रतिष्ठित विशाल खड्गासन मूर्ति का पुस्तक में जो अलौकिक दृश्य अंकित किया गया है, उसके अनुरूप भाव और भाषा एक कवि-हृदय ही पा सकता है। इतिहास के तथ्यों को यथासम्भव सुरक्षित रखते हुए, जहाँ भी कथानक के चित्रण ने भावनाओं को प्रेरित किया है, वहाँ नीरज जी की कल्पना मुखर हो गयी है। तथ्यों का सपाट वर्णन इतिहास कर सकता है जहाँ आकृति का ढाँचा खड़ा कर देने से काम चल जाता है, किन्तु साहित्य की रचना तक सम्पूर्ण होती है। जब ढाँचे में प्राणों का स्पन्दन होने लगे। ऐसा स्पन्दन लेखक ने स्वयं तो अनुभव किया ही है, पाठकों तक भी उसे पहुँचाया है।
भगवान बाहुबली की मूर्ति के दर्शनों के लिए पोदनपुर की जिस यात्रा की व्यवस्था चामुण्डराय ने अपनी माता की अभिलाषा पूर्ति के लिए की थी, उस यात्रा का विवरण कहीं भी पोथियों में नहीं मिलता। यात्रियों में माता, काललदेवी, उनके गुरु आचार्य नेमिचन्द्र, चामुण्डराय और चामुण्डराय की पत्नी अजितादेवी की नामावलि सहजता से सोची जा सकती है, किन्तु संघ की यात्रा को सजीव और सम्पूर्ण बनाने के लिए नीरज जी के चामुण्डराय के पुत्र जिनदेवन, पुत्रवधू सरस्वती और पौत्र सौरभ को रूपांकित किया है। एक भरा-पूरा राज-परिवार श्रावकोचित मर्यादाओं के सारे आयोजनों को, धर्म गुरुओं के निर्देशन में, सम्यक्-दर्शन सम्यक्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र की महिमा से मण्डित करता है। नीरज जी की यह कल्पना-दृष्टि, कथा को नया आयाम देती है। साहित्यिक लेखन प्रेरक भी हो, ‘गोमटेश-गाथा’ इसका उदाहरण है।
अन्त में कई अध्यायों में कथा का विस्तार कितना आवश्यक था, इसमें मतभेद हो सकता है, किन्तु लेखक का यह आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है कि जिस विशाल परिवेश में गोमटेश स्वामी की मूर्ति का निर्माण हो रहा है, जहाँ जिनदेवन और सरस्वती अपने-अपने दायित्वों के निर्वाह में तन-मन से लगे हुए हैं, उस परिवेश को जीवन्तता दी जाए। इसके लिए शिल्पी के (जिसे नीरज जी ने अरिष्टनेमि न कहकर केवल रूपकार की संज्ञा दी जाती है) मनोभावों को और उसकी दुविधा को चित्रित करना आवश्यक है। ‘रूपकार’ ने सरस्वती को अपनी दीदी माना है। इस नाते से सौरभ रूपकार को-‘मामा’ के रूप में देखता है। इन मानवीय सम्बन्धों का सृजन एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति में जुटे हुए व्यक्तियों के पारस्परिक स्नेह और उनकी कोमल भावनाओं से जुड़ा हुआ है।
कथानक उठा लेने के बाद उसका यथोचित निर्वाह करना साहित्यकार और उपन्यासकार की अनिवार्यता हो जाती है। इसके अतिरिक्त इन अध्यायों के द्वारा उस सारे कथानक का उद्देश्य उद्घाटित होता है जो भरत-बाहुबली के द्वन्द्व से प्रारम्भ हुआ और रुपकार के लोभी मन तथा चामुण्डराय के तथाकथित अहंकार तक पहुँचा। अपने-अपने विचारों से मुक्त होकर, शान्ति और आध्यात्मिक उत्कर्ष तक कैसे पहुँचा जा सकता है, इस मर्म तक पहुँचना और पाठक के लिए वहाँ पहुँचने का मार्ग-निर्देश करना, गोमटेश गाथा का, उसके ज्ञानी और सहृदय लेखक का उद्देश्य रहा है। नीरज जी की इस सफलता पर मेरी बधाई।
गाथा पढ़कर मुझे निश्चय हो गया कि नीरज जी ऐसे साहित्य-स्रष्टा हैं, जिन्हें नयी भाषा-शैली पर सन्तुलित अधिकार प्राप्त है। सच पूछिए, तो ‘गोमटेश-गाथा’ पर मैं बरबस ही विस्मित और मुग्ध हुआ हूँ। मेरा विश्वास है लेखक के इस श्रम का गुल्लिका-अज्जी की साधना और श्रम की तरह सम्मान होगा और इसे व्यापक रूप से पढ़ा जाएगा।
मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि इस गाथा को एक खेले जा सकने वाले नाटक के रूप में तैयार किया जाए, जिसमें लेखक के सशक्त संवादों और सांस्कृतिक आयामों को मानवीय संवेदनाओं के सम्यक् पटल पर कुशलता के साथ प्रस्तुत किया जाए।
यह सुखद संयोग है कि श्री नीरज जी ने भगवान बाहुबली की प्रतिष्ठापना सहस्राब्दी महोत्सव के अवसर पर इस ‘गोमटेश-गाथा’ का सृजन किया है। इस कृति के द्वारा समाज को कितनी ही जानकारी समुपलब्ध हो सकेगी।
-श्रेयांसप्रसाद जैन
दिनांक 2.11.80
शिखरकुंज,
बम्बई
शिखरकुंज,
बम्बई
प्रस्तावना
कर्नाटक प्रदेश में श्रवणबेलगोल दिगम्बर जैनों का प्राचीन तीर्थ है। गोमटेश्वर भगवान् बाहुबली की एक ही पाषाण में निर्मित, सत्रह मीटर ऊँची अनोखी प्रतिमा के कारण यह स्थान विश्व में प्रसिद्ध हो गया है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती की प्रेरणा से, गंगराज्य के मन्त्री और महासेनाध्यक्ष चामुण्डराय के द्वारा निर्मापित इस प्रतिमा का स्थापना महाभिषेक ईस्वी सन् 981 में हुआ था। 1981 के फरवरी-मार्च में इस प्रतिमा के सहस्राब्दी महोत्सव एवं महा-मस्तकाभिषेक का विशाल आयोजन हो रहा है। लाखों श्रद्धालुजन, अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार उनकी भक्ति का संकल्प कर रहे हैं। इस मंगल अवसर पर गोमटेश्वर स्वामी के प्रसाद की ही तरह ‘गोमटेश-गाथा’ के रूप में अपनी श्रद्धा का यह पुंज, अपने पाठकों को समर्पित कर पाने के लिए मैं अपने आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ।
श्रवणबेलगोल का इतिहास बहुत प्राचीन है। महावीर और बुद्ध के तीन सौ वर्ष बाद से, जब से हमारे इतिहास के भौतिक अवशेष हमें उपलब्ध हैं, चन्द्रगिरि पर्वत पर घटने वाला एक अद्यावधि-अविच्छिन्न घटनाक्रम हमें यहाँ प्राप्त होता है। श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य की जीवनी के विषय में पुराण और इतिहास लगभग एक ही स्वर में बोलते हैं। आचार्य भद्रबाहु के साथ मुनियों का संघ दक्षिणापक्ष की ओर गया और दिगम्बर मुनि के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखना के द्वारा चन्द्रगिरि पर देह-त्याग किया, आज के अधिकांश इतिहास पण्डित इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। जिन्हें इसकी प्रामाणिकता में सन्देह है, उनके पास पचास वर्ष की आयु में चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा अनायास सिंहासन त्यागने और अपने यशस्वी जीवन का अज्ञात अन्त कर लेने के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक या तर्कसम्मत विकल्प नहीं है।
आचार्य भद्रबाहु और सम्राट् चन्द्रगुप्त के इतिहास से जुड़ा हुआ, श्रवणबेलगोल का चन्द्रगिरि पर्वत, निश्चित ही उसके पहले भी तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा होगा। किसी अनजानी और अप्रसिद्ध भूमि पर इतने बड़े संघ का शरण लेना और इतने महान आचार्य के द्वारा उसे सल्लेखना के लिए चुना जाना स्वाभाविक नहीं लगता। मुनिजन शान्त निराकुल तपोभूमि पर ही सल्लेखना धारण करते थे। चन्द्रगुप्त की तपस्या के बाद तो चन्द्रगिरी की मान्यता बढ़ती ही रही। दसवीं शताब्दी तक आते-आते यह तीर्थ बहुत ख्यात हो चुका था। एक अतिशय प्राचीन तीर्थ और तपोवन के रूप में आसेतु हिमालय इसकी प्रसिद्धि हो चुकी थी।
चामुण्डराय गंग राजवंश के प्रतापी सेनापति थे। गोमट उन्हीं का प्यार का नाम था। बाहुबली के दर्शन के लिए उनकी माता कालका देवी का प्रण एक दिन चामुण्डराय को चन्द्रगिरि तक खींच लाया। संयोग से यहीं उन्हें बाहुबली की प्रतिमा के निर्माण की प्रेरणा प्राप्त हुई, यहीं उसे साकार करने की अनुकूलता दृष्टिगोचर हुई। फिर उनके अटल संकल्प ने यह लोकोत्तर निर्माण यहाँ उनके हाथ से करा दिया। चामुण्डराय इस प्रतिमा के निर्माण के पूर्व ही राजनीति में, वीरता, में धर्म के अध्ययन-मनन में और साहित्य-रचना में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। गोमटेश-प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के तीन वर्ष पूर्व ही उनके दोनों ग्रन्थों, ‘चामुण्डराय पुराण’ और ‘चारित्रसार’ की रचना सम्पन्न हो चुकी थी। धार्मिक प्रवृत्ति के लिए और वीरता के लिए अनेक उपाधियों से उन्हें भूषित किया जा चुका था।
दक्षिण भारत के इतिहास में आठवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी ईस्वी तक, पाँच सौ वर्ष का काल जैन धर्म और जैन संस्कृति का ‘स्वर्णिम काल’ कहा जाने योग्य है। इस कालावधि में अनेक प्रभावक आचार्य और मुनि हुए। एक से बढ़कर एक दानशील गृहस्थ तथा कल्पना के धनी लेखक और कवि इसी काल में इस भूमि पर हुए। अनेक कराया। विशेषकर कर्नाटक के कला-जगत ने और कन्नड़ साहित्य ने महत्त्वपूर्ण और चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त की। इस अवधि में वहाँ के बहुतेरे राजवंश, पल्लव, पाण्ड्य, पश्चिमी चालुक्य गंगा राष्ट्रकूट, कलचुरी और होयसल, प्रायः सभी, धार्मिक सहिष्णुता से युक्त रहे। इन शासकों के द्वारा, या इनकी छत्रछाया में अनेक भक्तों के द्वारा, जैन संस्कृति के निर्माण, संरक्षण और प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान मिलता रहा। उस गौरवपूर्ण काल की स्मृति दिलानेवाले इतिहास और कला के प्रमाण आज भी कर्नाटक के गाँव-गाँव में बिखरे हुए हैं।
जन धर्म के इस उत्कर्ष काल में गंगवंश का शासनकाल, वास्तविक स्वर्णकाल था। गोमटेश्वर बाहुबली की यह अद्भुत प्रतिमा इसी काल की देन है। एक ही पाषाण में निराधार गढ़ी गयी, संसार की यह सबसे ऊँची और अद्वितीय पाषाण-प्रतिमा है। मनोज्ञता और प्रभावकता में भी उसका कोई जोड़ नहीं है। इतने बड़े आकार की जितनी भी अन्य प्रतिमाएँ जहाँ भी हैं, वे या तो अनेक पाषाण-खण्डों को जोड़कर बनायी गयी हैं, या फिर किसी बड़ी चट्टान में एक ओर ही उकेरी गयी हैं। इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रवणबेलगोल से बड़ा अतिशयवान तीर्थ, गोमटेश्वर से बड़ी मनोहर मूर्ति, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से अधिक प्रभावशाली गुरु, चामुण्यराय से बड़ा भक्त श्रावक औक गोमटेश के अनाम मूर्तिकार से बड़ा भाग्यवान शिल्पी, कर्नाटक के सहस्र वर्षों के इतिहास में दूसरा कोई नहीं हुआ। आगे कोई होगा इसकी तो आशा करना ही व्यर्थ है। क्योंकि-
श्रवणबेलगोल का इतिहास बहुत प्राचीन है। महावीर और बुद्ध के तीन सौ वर्ष बाद से, जब से हमारे इतिहास के भौतिक अवशेष हमें उपलब्ध हैं, चन्द्रगिरि पर्वत पर घटने वाला एक अद्यावधि-अविच्छिन्न घटनाक्रम हमें यहाँ प्राप्त होता है। श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और चाणक्य की जीवनी के विषय में पुराण और इतिहास लगभग एक ही स्वर में बोलते हैं। आचार्य भद्रबाहु के साथ मुनियों का संघ दक्षिणापक्ष की ओर गया और दिगम्बर मुनि के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य ने सल्लेखना के द्वारा चन्द्रगिरि पर देह-त्याग किया, आज के अधिकांश इतिहास पण्डित इस तथ्य को स्वीकार करते हैं। जिन्हें इसकी प्रामाणिकता में सन्देह है, उनके पास पचास वर्ष की आयु में चन्द्रगुप्त मौर्य के द्वारा अनायास सिंहासन त्यागने और अपने यशस्वी जीवन का अज्ञात अन्त कर लेने के सम्बन्ध में कोई प्रामाणिक या तर्कसम्मत विकल्प नहीं है।
आचार्य भद्रबाहु और सम्राट् चन्द्रगुप्त के इतिहास से जुड़ा हुआ, श्रवणबेलगोल का चन्द्रगिरि पर्वत, निश्चित ही उसके पहले भी तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध रहा होगा। किसी अनजानी और अप्रसिद्ध भूमि पर इतने बड़े संघ का शरण लेना और इतने महान आचार्य के द्वारा उसे सल्लेखना के लिए चुना जाना स्वाभाविक नहीं लगता। मुनिजन शान्त निराकुल तपोभूमि पर ही सल्लेखना धारण करते थे। चन्द्रगुप्त की तपस्या के बाद तो चन्द्रगिरी की मान्यता बढ़ती ही रही। दसवीं शताब्दी तक आते-आते यह तीर्थ बहुत ख्यात हो चुका था। एक अतिशय प्राचीन तीर्थ और तपोवन के रूप में आसेतु हिमालय इसकी प्रसिद्धि हो चुकी थी।
चामुण्डराय गंग राजवंश के प्रतापी सेनापति थे। गोमट उन्हीं का प्यार का नाम था। बाहुबली के दर्शन के लिए उनकी माता कालका देवी का प्रण एक दिन चामुण्डराय को चन्द्रगिरि तक खींच लाया। संयोग से यहीं उन्हें बाहुबली की प्रतिमा के निर्माण की प्रेरणा प्राप्त हुई, यहीं उसे साकार करने की अनुकूलता दृष्टिगोचर हुई। फिर उनके अटल संकल्प ने यह लोकोत्तर निर्माण यहाँ उनके हाथ से करा दिया। चामुण्डराय इस प्रतिमा के निर्माण के पूर्व ही राजनीति में, वीरता, में धर्म के अध्ययन-मनन में और साहित्य-रचना में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। गोमटेश-प्रतिमा की प्रतिष्ठापना के तीन वर्ष पूर्व ही उनके दोनों ग्रन्थों, ‘चामुण्डराय पुराण’ और ‘चारित्रसार’ की रचना सम्पन्न हो चुकी थी। धार्मिक प्रवृत्ति के लिए और वीरता के लिए अनेक उपाधियों से उन्हें भूषित किया जा चुका था।
दक्षिण भारत के इतिहास में आठवीं से लेकर बारहवीं शताब्दी ईस्वी तक, पाँच सौ वर्ष का काल जैन धर्म और जैन संस्कृति का ‘स्वर्णिम काल’ कहा जाने योग्य है। इस कालावधि में अनेक प्रभावक आचार्य और मुनि हुए। एक से बढ़कर एक दानशील गृहस्थ तथा कल्पना के धनी लेखक और कवि इसी काल में इस भूमि पर हुए। अनेक कराया। विशेषकर कर्नाटक के कला-जगत ने और कन्नड़ साहित्य ने महत्त्वपूर्ण और चिरस्थायी समृद्धि प्राप्त की। इस अवधि में वहाँ के बहुतेरे राजवंश, पल्लव, पाण्ड्य, पश्चिमी चालुक्य गंगा राष्ट्रकूट, कलचुरी और होयसल, प्रायः सभी, धार्मिक सहिष्णुता से युक्त रहे। इन शासकों के द्वारा, या इनकी छत्रछाया में अनेक भक्तों के द्वारा, जैन संस्कृति के निर्माण, संरक्षण और प्रसार में महत्त्वपूर्ण योगदान मिलता रहा। उस गौरवपूर्ण काल की स्मृति दिलानेवाले इतिहास और कला के प्रमाण आज भी कर्नाटक के गाँव-गाँव में बिखरे हुए हैं।
जन धर्म के इस उत्कर्ष काल में गंगवंश का शासनकाल, वास्तविक स्वर्णकाल था। गोमटेश्वर बाहुबली की यह अद्भुत प्रतिमा इसी काल की देन है। एक ही पाषाण में निराधार गढ़ी गयी, संसार की यह सबसे ऊँची और अद्वितीय पाषाण-प्रतिमा है। मनोज्ञता और प्रभावकता में भी उसका कोई जोड़ नहीं है। इतने बड़े आकार की जितनी भी अन्य प्रतिमाएँ जहाँ भी हैं, वे या तो अनेक पाषाण-खण्डों को जोड़कर बनायी गयी हैं, या फिर किसी बड़ी चट्टान में एक ओर ही उकेरी गयी हैं। इतिहास पर दृष्टि डालने से यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रवणबेलगोल से बड़ा अतिशयवान तीर्थ, गोमटेश्वर से बड़ी मनोहर मूर्ति, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती से अधिक प्रभावशाली गुरु, चामुण्यराय से बड़ा भक्त श्रावक औक गोमटेश के अनाम मूर्तिकार से बड़ा भाग्यवान शिल्पी, कर्नाटक के सहस्र वर्षों के इतिहास में दूसरा कोई नहीं हुआ। आगे कोई होगा इसकी तो आशा करना ही व्यर्थ है। क्योंकि-
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